लेख-निबंध >> छोटे छोटे दुःख छोटे छोटे दुःखतसलीमा नसरीन
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जिंदगी की पर्त-पर्त में बिछी हुई उन दुःखों की दास्तान ही बटोर लाई हैं-लेखिका तसलीमा नसरीन ....
फतवाबाज़ों की खुराफ़ात
मस्जिद के इमाम और गाँव के सरपंचों की साठ-गाँठ के तहत, हाल ही में सिराजगंज जिला के उल्लापाड़ा थाना के मातहत बादेकुशा गाँव में पैंतीस औरतों को बिरादरी-बाहर कर दिया गया है। यह दिलचस्प ख़बर, अखबारों में काफी बढ़ा-चढ़ाकर छापी गई है। अभी उसी दिन सिलहट के छातकछड़ा गाँव में मौलानाओं ने नूरजहाँ को मार डाला। अब उल्लापाड़ा में लगभग मार डालने की तरह ही, इन औरतों को समाज के बाहर फेंक दिया गया। इन पैंतीस औरतों का जुर्म? इन लोगों ने परिवार परिकल्पना तरीके का इस्तेमाल किया था यानी परिवार नियोजन का! और ग्रामीण बैंक से उधार लिया था। मौलाना लोगों का वक्तव्य है-औरत को परिवार-नियोजन की भला क्या ज़रूरत ? परिवार नियोजन का मतलब है-अल्लाह के खिलाफ जाना! अल्लाह ने अगर उसकी कोख भरी है, तो उस कोख को दुनिया में आमंत्रित न करने का हक, किसी भी इंसान का नहीं है, खासकर औरत का! देश में परिवार नियोजन आन्दोलन की खासी धूम मची है और उन्हीं दिनों देश के ही किसी गाँव में परिवार-नियोजन को महा-अपराध मान लिया गया है। सरकार कई सालों से परिवार-नियोजन के लिए चीख-पुकार मचा रही है, मगर उल्लापाड़ा के मुल्लाओं की हिम्मत तो देखो। उन लोगों ने एक फतवा देकर सरकार के सर्वाधिक अहम कार्यक्रम को खारिज कर दिया। और जो लोग यह कार्यक्रम अपनाकर, अपनी और समाज की तरक्की में मददगार हैं, उन लोगों को बिरादरी-बाहर कर दिया है, उन पर जुल्म बरसा रहे हैं।
पैंतीस अदद आधुनिक, मुक्तबुद्धि औरतें, आज समाजच्युत होकर, दुःख-दुर्दशा में दिन गुज़ार रही हैं। उस गाँव की मस्जिद के इमाम और जानी-मानी लोगों ने जो फैसला सुनाया है, उसे वापस लौटाने की मजाल, न तो उल्लापाड़ा के निरीह लोगों में है। न ही उन पैंतीस अदद औरतों में! वे लोग समूचे गाँव भर लोगों के सामने बहिष्कृत की गई हैं। उन लोगों ने पंचायत का यह फैसला कबूल कर लिया है! इसके अलावा औरत के लिए और कोई उपाय भी क्या है? वे लोग तो ऐसी निरीह जीव हैं कि उन पर धर्म की कुठार तानी जा सकती है; उन लोगों पर ही समाज का फतवा! उन्हीं औरतों पर हल चलाया जाता है; उन्हीं लोगों पर बुलडोजर!
इन मुल्लों का फतवा, औरतों पर ही ज़्यादा बरसता है, क्योंकि औरतें तो 'सबकुछ मान लेने वाली जात' होती हैं, 'छाती फटे, मगर जुबान न फूटने वाली' जात होती हैं। लेकिन आखिर कितने दिनों तक उन बदमाश मौलानाओं की तनी हुई तलवार के नीचे अपना सिर बिछाती रहेंगी? इस तलवार का नाम है शैतान! औरतों को लेकर चारों तरफ शैतानी चल रही है। ये मौलाना ही औरतों को लेकर शैतानी खेल खेल रहे हैं। हम लोगों तक कितनी नूरजहाँ जैसी औरतों की ख़बर पहुँच पाती है? समाजच्युत कितनी औरतों का हाल हम जान पाते हैं? जो दो-चार ख़बरें मिलती हैं, बस, वही जान पाते हैं और परेशान हो उठते हैं। उन्हीं ख़बरों पर लम्बी-लम्बी उसाँसें भरते हैं।
पैंतीस अदद औरतें आज भी समाजच्युत हालत में दिन गुज़ार रही हैं? मुझे नहीं मालूम ! यह समाज अब किन लोगों की दखल में है? इस समाज में कौन हैं वे लोग, जो औरतों को बिरादरी-बाहर करते हैं? यह अधिकार उन लोगों को कहाँ से मिला? इस देश में आखिर किन लोगों का राजपाट है? देश मौलानाओं और मस्तानों के निर्देश मुताबिक चलेगा? हमने कभी ऐसा सोचा था? हम लोगों ने सत्य, समानता और सुन्दर के सपने देखना सीखा था! हम लोगों ने जिन्होंने धर्मनिरपेक्षता और समाजतंत्र के पक्ष में कहना-सुनना सीखा था, आजादी पाने के बाईस साल बाद, हम लोग अपनी आँखों के सामने सुजला-सुफला गाँव में धर्म का ऐसा असभ्य शासन देखते रहेंगे?
मुझे बंगलादेश पर बेहद गर्व है! यह मेरा देश है! यह धर्म मेरे पूर्व-पितामह का जन्म स्थान है! उनकी देश-भुईं! ये सब मेरे खेत-खलिहान हैं! इन भरी-भरी फसलों के देश में, टिड्डियों के दल की तरह, मुल्ले उतर आए हैं और अपना रौब-दाब विस्तार कर रहे हैं! गुलाम आयम ने सन् इकहत्तर में लाखों-लाखों बंगालियों को क़त्ल किया और फिर जय-जयकार की गूंज के साथ जेल से बाहर निकल आया है। खून चूसनेवाले ड्रैकुला की तरह अब वह मारे खुशी के, दाँत निपोरकर ठहाके लगाता है! महा-खुशी से जश्न मनाता है। हालाँकि इसी कारागार में ही किसी रीमा की हत्या करके, कोई मुनीर फाँसी पर झूल गया और लाखों-लाखों इंसानों का खून करके गुलाम आयम 'बेकसूर' साबित होता है। और रिहा भी हो जाता है! जेल-गेट पर उसका इंतज़ार कर रहे होते हैं अनगिनत हत्यारे! कातिल! इन लोगों में विराज रहे होते हैं वही मौलाना लोग, जो लोग उल्लापाड़ा में पैंतीस जुझारू और कर्मठ औरतों के खिलाफ फतवों की राजनीति करते हैं। नहीं, 'करते हैं' के बजाय 'खेलते हैं' कहना चाहिए। ये लोग तो असल में इंसानों के साथ एक तरह से खिलवाड़ ही कर रहे हैं। जिसे कहते हैं, गुड़ियों का खेल! आम जनता तो उनके हाथों का खिलौना है! वे लोग धर्म का भय या लोभ दिखाकर। मज़ेदार खेल, खेलते ही जा रहे हैं! धर्म मानों मौलानाओं के बाप की जायदाद है! अलखल्ला झब्बा-टोपी पहन लिया, नमाज़ पढ़-पढ़कर माथे पर निशान बना लिए। हाथ में तस्वीह हिलती-डुलती रही-बस्स, धर्म उन लोगों की अचल जायदाद बन गया-यह क्या कबूल किया जा सकता है?
अब यह खेल, खेलने देना उचित नहीं है। इससे तो बेहतर है उल्लापाड़ा के जागरूक लोग, इन फतवाबाज़ों को समाजच्युत कर दें। सिर्फ उल्लापाड़ा ही क्यों, समूचे देश में जितने भी फतवाबाज़ मौलाना मौजूद हैं, नई पीढ़ी उन्हें समाज-बाहर करने की दर्पपूर्ण शपथ ले। फतवाबाज़ मौलाना लोग किसी न किसी दिन ज़रूर निर्मूल होंगे, चूंकि मुझे इसका पक्का विश्वास है शायद इसीलिए मैं ज़िंदा हूँ और अभी भी इस देश पर गर्व करती हूँ!
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